कबीर जयंती पर विशेष सुन भई साधो …

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कबीर ऐसे महान चिंतक, समाज सुधारक एवं संप्रेषक थे जिन्होंने युगों-युगों की संचेतना को जागृत कर दिया। मतों- मतांतरों के भेद, रूढ़ियों और कर्मकांडों के कट्टर विरोधी कबीर मानवीय संवेदनाओं की कोमल वाणी थे। हिंदू मुसलमान के द्वंद की खाई को पाटने वाले एकता के ओजस्वी संवाहक कबीर आज भी करोड़ों ह्रदयों में धड़कते हैं। सद्गुरु की वाणी में समूचे मानवीय मूल्यों का भाष्य है। लहरतारा का मंगलगान कबीर शाश्वत हैं। संसार के ऐसे सहयात्री हैं जो प्रेम और सद्भाव का पथ बताते हैं। सही मायनों में कबीर सत्यान्वेषी हैं इसलिए झूठ पर कड़ा प्रहार करते हैं। मौलिकता, निर्भीकता, स्पष्टता और आत्मविश्वास कबीर के ओज में है। इसलिए कहते हैं, पंडित मुल्ला जो लिख दिया, छांड़ि चले हम कछु न लिया। विषमता और अंधविश्वास के खिलाफ कबीर स्वयं में एक आंदोलन थे।

सही मायनों में कबीर सत्यान्वेषी हैं इसलिए झूठ पर कड़ा प्रहार करते हैं। ( लेखक हैं मीडिया शिक्षाविद् डॉ शाहिद अली )

मध्यकालीन भारतीय संत परंपरा के जाज्वल्यमान मार्तण्ड कबीर का जीवन दर्शन सद्विचारों की ऐसी गंगा है जिसमें डूबकी लगाकर मनुष्य का जीवन सदाचारों से महक उठता है। कबीर की वाणी कोसों दूर जन-मन तक जाती थी इसलिए वे महान संप्रेषक थे। कबीर के सानिध्य में रहे पीपा भगत ने साहेब के चाहने वालों पर लिखा है, गांव गांव कबीर की जाता, दरशन करत न लोग अघाता। गुजरात के प्रसिद्ध वैष्णव संत ज्ञानी जी महाराज कबीर साहब के शिष्य हो गए थे उन्होंने कबीर साहब के प्रति कहा,
बटक बीज के मांझ में,
अटक भया मन थीर।
जन ज्ञानी का संसा मिटा,
सद्गुरु मिले कबीर ।।
गुजरात में कबीर साहब की यात्रा पर भावविभोर बाबा दीन दरवेश ने कहा,
कहत दीन दरवेश,
संत को तीर्थ बनाया।
संत कबीर दीदार,
सकल तीर्थ को पाया।।
काशीवासी संत रविदास ने कबीर साहब की महत्ता पर घोषणा की , तिहुरे लोक परसिद्ध कबीरा।
मध्ययुगीन विचारकों में कबीर सभी परपंराओं में स्वीकार्य थे। कबीर के आध्यात्मिक विचार वास्तव में भारतीय संस्कृति की मजबूत आधारशिला है। संत रैदास ने तभी कहा, कबीर नवखंड और त्रिलोक में प्रसिद्ध हैं। भारतीय विचारधारा में कबीर एक संपूर्ण आख्यान है, क्योंकि स्वतंत्र चिंतन के साथ धर्म के प्रति आकर्षण पैदा करना कबीर की पाठशाला में ही संभव है। स्वीकार करना होगा कि वर्ग और संप्रदाय के बंधनों को तोड़ कर मानव को स्वतंत्र वातावरण में सांस लेने के लिए प्रेरणा देकर कबीर साहब ने मानो बुद्ध के अधूरे काम को पूरा करने का प्रयत्न किया है। कबीर के इन्हीं भावों के कारण लोगों के नैतिक जीवन में सुधार और अपने धर्म के प्रति स्वतंत्र रूप से विचार करने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। कबीर का संप्रेषण मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण मस्तिष्क को उन्नत करने वाला है।

मस्त और मनमौजी कबीर अपने समय के नेता थे। अपने भावों को उन्होंने कभी दबाया नहीं। जो धुन में आया उसे वैसा ही साहस के साथ कहा। एक आदर्श नेता के सद्गुणों को वे निरंतर जीते थे। सरल, विनम्र और सदाचार की मिसाल थे। निर्भीक वक्ता और आलोचक थे।
कबीर के व्यक्तित्व निर्माण में तत्कालीन समाज की परिस्थितियों और आत्म प्रेरणा की बड़ी भूमिका थी। वे कभी झिझके नहीं, कभी झुके नहीं, कभी अटके नहीं, कभी भटके नहीं। वे अपनी साधना के धनी, विश्वासों के राजा और अनुभूतियों के साहूकार थे। जो मार्ग उन्होंने दूसरों को दिखाया वे उसी पर चले थे और वही उनका मुक्ति मार्ग था। बंधन तोड़ने के लिए उन्होंने जो सरलता ढूंढ निकाली वही उनके मार्ग की विशेषता थी। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही व्यक्त किया कि हजार वर्ष के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व नहीं उत्पन्न हुआ।

कबीर को लोकजीवन का ऐसा व्याख्यान कहा जा सकता है जिसने अपने काव्य के जरिए जन की पीड़ा और विपन्नता को जुबान दी। यही कारण है कि प्रगतिशील लेखकों और विचारकों ने कबीर को हमेशा प्रासंगिक माना। सामंतवादी व्यवस्था कबीर के पीछे पड़ी रही लेकिन कबीर ने आलोचनाओं की परवाह नहीं की । ‘मसि कागद छुवो नहीं, कलम गहो नहीं हाथ’, कहने वाले कबीर पढ़ें-लिखे नहीं थे लेकिन मानव दर्शन और अध्यात्म के सच्चे विश्वविद्यालय थे और आज भी है।
आज के समय में भी जिन चुनौतियां का सामना समाज और संसार कर रहा है वहां कबीर आज भी प्रासंगिक हैं और लोक शिक्षक की भूमिका में शिक्षित और जागरूक कर रहे हैं।
(लेखक मीडिया शिक्षाविद् हैं )

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