आपातकाल को पचास बरस हो गए हैं। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जो 21 मार्च 1977 तक लागू रहा। यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले के बाद लिया गया जिसमें इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया था। आपातकाल में संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी पर रोक लगी। विपक्षी नेताओं कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। लगभग एक लाख लोग बिना मुकदमे के हिरासत में रहे। प्रेस सेंसरशिप लागू की गई और सरकार विरोधी सामग्री प्रकाशित करने पर पाबंदी थी।
जबरन नसबंदी अभियान और शहरी सौंदर्यीकरण के नाम पर झुग्गी-झोपडिय़ों को हटाने जैसे कदमों से जनता में असंतोष बढ़ा। आपातकाल देश के लिए एक काले अध्याय की तरह है। देश ने पहली बार जाना कि आपातकाल के बहाने तानाशाही का रवैया क्या होता है। देश की जनता को पहली बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अहमियत का एहसास हुआ। राजनीति के अराजक हो जाने का देश के लिए यह एक बड़ा उदाहरण था।

भारतीय जनता पार्टी आपातकाल के 50 बरस पूरे हो जाने पर उसे संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने जा रही है। इसी आपातकाल को विनोबा भावे ने अनुशासन पर्व कहा था।
यहां बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि यदि संविधान की हत्या हो गई थी तो फिर उसे बाद में जीवित किसने किया? कैसे किया और कब किया? बाद के दो-ढाई बरस जनता पार्टी की सरकार को छोड़ दिया जाए तो फिर से कांग्रेस सरकार ही सत्ता में आई थी। यदि मान लिया जाए कि उस ढाई बरस में संविधान को जीवित किया गया तो इतनी बड़ी उपलब्धि, इतना बड़ा काम करने के उपरांत जनता ने उस मिली – जुली सरकार को अस्वीकार क्यों कर दिया? और कांग्रेस फिर बहुत बड़े बहुमत के साथ सत्ता में कैसे आ गई? हम सब साधारणजन और बौद्धिक जगत भी यह मानता है कि आपातकाल देश के लिए एक बड़ा कलंक था। लोकतंत्र के लिए अहितकारी था। लेकिन वोट देने वाली जनता ने इसे संविधान की हत्या नहीं माना या हत्या जैसा बड़ा अपराध नहीं माना।
यह एक ऐसा सवाल है। एक ऐसी गुत्थी है जिसे राजनीति के विशेषज्ञ भी नहीं सुलझा पाए।
बहुत सी बातें हुईं लेकिन इस बात का कोई तार्किक विश्लेषण नहीं हो पाया कि इतनी बड़ी घटना के बाद इंदिरा गांधी सत्ता में फिर कैसे और क्यों आ गई और न सिर्फ आई बल्कि बरसों-बरस कायम रही। इतने बड़े अपराध के बाद तो राजनीतिक कैरियर खत्म हो जाना था लेकिन वह बड़ी मास अपील यानी और बड़ी लोकप्रियता के साथ आई।
आपातकाल को लेकर सिर्फ बौद्धिक जगत में ही नहीं आमजन में भी बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और बहुत बड़ा विरोध हुआ था। वह इतिहास का एक ऐसा अध्याय है जिसे आज की पीढ़ी भी जानती-समझती है। खासकर ऐसे युवा जिनकी राजनीति में सामान्य रुचि भी है।
लेकिन ऐसे समय में कांग्रेस भी यह आरोप लगा रही है कि देश में मौजूदा समय भी अघोषित आपातकाल ही है। राजनीतिक गलियारों में चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी या कोई और दल, यह बात वहां से चलकर आमजन में फैल रही है कि राजनीतिक विरोधियों को सिर्फ सताया नहीं जा रहा है बल्कि उनके नौकरी-धंधे खत्म किये जा रहे हैं। उनके आर्थिक आधार तोड़े जा रहे हैं। ईडी और इनकम टैक्स के छापे पड़ते हैं।
सामाजिक आर्थिक और मानसिक रूप से उनको प्रताडि़त किया जा रहा है। मीडिया की हालत भी किसी से कोई छुपी हुई नहीं है। उसे लोग अपनी गोदी मीडिया बोलने लगे हैं। विपक्ष का कहना है कि मीडिया चाहे जिस मजबूरी, दबाव में या छापे या कानूनी कार्रवाई की धमकी से डर रही हो लेकिन अब वह पूरी तरह दबाव में है और सरकार समर्थक नैरेटिव सेट करने के लिए विवश है । विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 2014 में 140 थी जो 2024 में 161 हो गई है। यह दर्शाता है कि प्रेस स्वतंत्रता पर कुछ चुनौतियां बढ़ी है। कारणों में पत्रकारों पर हमले, धमकियां , कानूनी मुकदमे और आर्थिक दबाव शामिल हैं।
2014 से लेकर 2024 के बीच के तहत गिरफ्तारियों में वृद्धि हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में इन कानूनों के दुरुपयोग पर चिंता जताई है। विपक्ष का तो यह भी कहना है कि 2014 के बाद नागरिक अधिकारों पर कई तरह से अंकुश लगा है।
दिल्ली में जंतर-मंतर जैसे स्थानों पर प्रदर्शनों पर पाबंदियां लगाई गई। आधार और डिजिटल निगरानी को लेकर भी विपक्ष की चिंताएं हैं। उनका दावा है कि यह अघोषित आपातकाल है। सोशल मीडिया पर सरकार विरोधी और समर्थक दोनों तरह के नैरेटिव मौजूद हैं। लेकिन आलोचकों को ट्रोलिंग और धमकियों का सामना करना पड़ता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह सरकार द्वारा प्रायोजित है या स्वतंत्र समूह द्वारा। लेकिन विपक्ष इसे सरकार द्वारा प्रायोजित मानता है। विरोधियों का यह कहना है कि यदि ऐसे उद्योगपति, नौकरी पेशा, राजनीतिक प्रतिद्वंदी, पत्रकारिता या बौद्धिक जगत से जुड़े लोग गलत कर रहे हैं तो उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है। यह शुरू में उचित लगती थी लेकिन यह बात आगे चलकर बहुत हास्यास्पद और सत्ता का षड्यंत्र लगने लगी कि वे लोग जैसे ही भाजपा की सदस्यता लेते हैं उनके सारे अपराध खत्म कर दिए जाते हैं।
उनके खिलाफ सारे केस खत्म कर दिए जाते हैं। एकाएक वे अपराधी से उजले सफेदपोश हो जाते हैं। अधिकांश राजनीतिज्ञ और विशेषकर विपक्ष इसको भी लोकतंत्र की हत्या ही मानते हैं। आमजन का कहना है कि भ्रष्टाचार इस समय जिस चरम स्थिति पर है ऐसा दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। अफसर से लेकर मंत्रियों तक कोई भी आमजन के दुख-दर्द को समझने की कोशिश भी नहीं कर रहा है। लोगों का कहना है कि आपातकाल में भी ऐसा ही था। आपातकाल में भी सत्ता का केंद्रीयकरण था। सत्ता के सारे सूत्र एक ही व्यक्ति के हाथ में थे। आज भी लोग ऐसा ही मानते हैं।
इन बातों से ऐसा लगता है कि आपातकाल को अपराध माना जाता है। कलंक माना जाता है। लेकिन तमाम बातों के बावजूद प्रत्येक सत्ता के लिए यह प्रिय स्थिति होती जा रही है। आज देश में यह प्रश्न प्रमुख हो रहा है कि क्या बहुमत से सत्ता में आ जाना चाहे वह कांग्रेस हो या कोई और दल, व्यक्ति या सत्ता को निरंकुश बनाता है? दुष्यंत कुमार का एक शेर है-
जैसा जी चाहे बजाओ, इस सभा में हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।।
सत्ता किसी की भी हो जब वह निरकुंश होती है और सच बोलने वालों को दंडित करती है तो कबीर कहते हैं सांच कहूं तो मारन धावै। आपातकाल के समय भी सारी सुख-सुविधा सत्ता के राजनीतिक लोगों और समृद्ध लोगों के हाथों में थी। लोगों का मानना है कि वही स्थिति आज भी बन रही है।
कुछ तथ्यात्मक विश्लेषण इस तरह से बनते हैं कि भारत में संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 19, 21) लागू हैं, लेकिन कुछ कानून (जैसे UAPA, नियम) इन अधिकारों को सीमित करने की शक्ति देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में नागरिक अधिकारों की रक्षा की है, जैसे जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट बहाली और कुछ UAPA मामलों में जमानत। हालांकि, न्यायिक प्रक्रिया धीमी होने से कई लोग लंबे समय तक हिरासत में रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र और अन्य संगठनों ने भारत में प्रेस स्वतंत्रता और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर चिंता जताई है। लेकिन इसे नया आपातकाल कहना कुछ हद तक ठीक भी है और कुछ-कुछ अतिरेक लगता है जैसे दोनों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कथित अंकुश। आलोचकों को निशाना बनाने के लिए कानूनी और प्रशासनिक शक्तियों का उपयोग।