छॉलीवुड: फिल्मों की संख्या बढ़ी लेकिन सिनेमाघरों की कमी,CHHATTISGARH FILM INDUSTRY

Spread the love

रायपुर: छत्तीसगढ़ अपने निर्माण के 25 साल पूरे कर रहा है. अब इसे ‘युवा छत्तीसगढ़’ कहा जाने लगा है. इसी बदलाव की झलक छत्तीसगढ़ी फिल्म इंडस्ट्री यानी छॉलीवुड में भी देखने को मिल रही है. कभी साल में सिर्फ 2 से 4 फिल्में बनती थीं, आज यह संख्या 40 से 50 तक पहुंच गई है. छत्तीसगढ़ अब हिंदी फिल्मों के निर्माण का भी केंद्र बनने लगा है.

आइये बात करते हैं CHHATTISGARH FILM INDUSTRY छत्तीसगढ़ फिल्म निर्माता-निर्देशकों का कहना है कि, सरकारी नीति है तो अच्छी लेकिन क्रियान्यवन तेजी से होना चाहिए.

आज इस रिपोर्ट में बताएंगे कुछ हिट छत्तीसगढ़ी फिल्में साथ ही जानेंगे इंडस्ट्री की उपलब्धि और चुनौतियों के बारे में-
इतिहास से वर्तमान तक: छत्तीसगढ़ी सिनेमा की शुरुआत 1965 में मनु नायक की फिल्म “कहि देबे संदेस” से हुई थी. यह फिल्म न सिर्फ पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म थी, बल्कि सामाजिक मुद्दों से भी जुड़ी हुई थी. अंतरजातीय प्रेम पर आधारित इस फिल्म को लेकर विवाद भी हुआ था. इसके बाद 1971 में “घर द्वार” आई. हालांकि इसके बाद करीब 3 दशक सन्नाटा रहा.

ये सन्नाटा टूटा वर्ष 2000 में, जब “मोर छइंहा भुइंया” के साथ छत्तीसगढ़ी सिनेमा का पुनर्जन्म हुआ. इसी साल 1 नवंबर को छत्तीसगढ़ का भी गठन हुआ. इस फिल्म की लोकप्रियता ने साबित कर दिया कि छत्तीसगढ़ी भाषा में भी व्यापक दर्शक वर्ग हैं.

इसके बाद कई हिट तो कई फ्लॉप फिल्में भी बनीं लेकिन छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने गति पकड़ ली. भूलन द मेज जैसी फिल्मों ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई और राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता.
अब जानते हैं क्या है चुनौतियां

रफ्तार बढ़ी, लेकिन थिएटर नहीं: निर्माता-निर्देशक मनोज वर्मा कहते हैं कि पहले जहां साल में 4-5 फिल्में बनती थीं, आज 30 से 40 फिल्में बन रही हैं. लेकिन उतने सिनेमाघर नहीं हैं, जिससे फिल्में रिलीज होने के लिए एक-दूसरे से टकरा रही हैं. एक छत्तीसगढ़ी फिल्म को यदि थिएटर में कम से कम एक महीना नहीं मिलता, तो निर्माता अपनी लागत तक नहीं निकाल पाता.

थिएटर की कमी, कंटेंट पर असर: निर्माता सतीश जैन कहते हैं कि आज हर हफ्ते एक नई फिल्म रिलीज हो रही है, लेकिन इससे दर्शक बंट जाते हैं और थिएटर नहीं मिल पाते. उन्होंने कहा कि “मोर छइंहा भुइंया” 8 हफ्ते चली, लेकिन इस दौरान अन्य फिल्मों को जगह नहीं मिली. उन्होंने सुझाव दिया कि जो फिल्म बनाना चाहता है, वो पहले टॉकीज बनाए ताकि लॉन्ग टर्म में फायदा मिले.

सरकार से अपेक्षा बहुत, सहयोग कम: मनोज वर्मा और सतीश जैन दोनों ही मानते हैं कि फिल्म नीति अच्छी बनी है, लेकिन जमीन पर उसका असर नहीं दिखता. सब्सिडी को लेकर स्पष्टता नहीं है. शूटिंग के बाद रिलीज में देरी से नुकसान होता है, खासकर तब जब फिल्म किसी मौजूदा मुद्दे या ट्रेंड पर आधारित होती है.
छोटे शहरों में थिएटर और सब्सिडी जरूरी: वरिष्ठ पत्रकार अनिरुद्ध दुबे के मुताबिक छत्तीसगढ़ी सिनेमा का स्वर्णिम काल अब शुरू हो चुका है. 2000 में राज्य गठन और “मोर छइंहा भुइंया” की रिलीज़ लगभग साथ-साथ हुई, और यही से सिनेमा की रफ्तार शुरू हुई. आज फिल्में 80 लाख से लेकर 1 करोड़ तक के बजट में बन रही हैं.

बॉलीवुड भी छत्तीसगढ़ का रुख कर रहा


अनिरुद्ध दुबे ने यह भी जानकारी दी कि हिंदी फिल्मों के निर्माता भी अब छत्तीसगढ़ की ओर रुख कर रहे हैं. प्रसिद्ध निर्देशक राजीव राय, जिन्होंने “गुप्त”, “त्रिदेव”, “मोहरा” जैसी फिल्में बनाई हैं, उन्होंने छत्तीसगढ़ में फिल्म “जोरा” बनाई है. इससे छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए कि यदि बाहर से लोग यहां आकर 2 करोड़ के बजट में फिल्म बना सकते हैं, तो हम क्यों नहीं

छॉलीवुड की गति को चाहिए सरकारी गति


छत्तीसगढ़ी सिनेमा ने खुद को साबित किया है. तकनीक, टैलेंट और ट्रेडिशन का मेल यहां दिखता है. लेकिन अगर सरकार थिएटर की संख्या नहीं बढ़ाएगी, सब्सिडी में पारदर्शिता नहीं लाएगी, और गांव-कस्बों तक सिनेमा नहीं पहुंचाएगी, तो यह गति ठहर भी सकती है. छॉलीवुड के निर्माता आज जोखिम लेकर फिल्में बना रहे हैं, पर यदि उन्हें सहयोग नहीं मिला, तो आने वाला समय सिर्फ रफ्तार की कहानी नहीं, रुकावटों का दस्तावेज भी बन सकता है. ऐसे में जरूरत है संतुलन की—फिल्मों की गुणवत्ता, रिलीज की रणनीति और सरकारी सहयोग, इन तीनों में.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *